राम रस पीवो कुंडाल भरी


दोहा:

सत्संग घर-घर नहीं नहीं घर-घर गजराज,
सिंह का टोला नहीं नहीं चंदन को बाग।

सत्संग में जाविए तज माया अभिमान,
ज्यों ज्यों कदम सामे धरे त्यो यज्ञ समान।





 सन्तो राम रस पीवो कुंडाल भरी।

कुंडाल भरी मोइने मेवा मिसरी 

 भायो हरि रस पीवो कुंडाल भरी।

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राम नाम री रे संगत रे भारी,

लाल पेड़  ज्योरी डाल हरी,

 सन्तो राम रस पीवो कुंडाल भरी।

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सुरत नुरत  दोई गोटण  बैठी,

गोटे गोटे ने किदी रजक जड़ी,

 सन्तो राम रस पीवो कुंडाल भरी।

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पांच पच्चीस मिल पीवण बैठा,

पियाला भरे  हमें  घड़ी ने घड़ी,

 सन्तो राम रस पीवो कुंडाल भरी।

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पीवे स्वभागिया ढोले अभागिया,

नुगरो  नहीं  मिले  पांव  रती,

 सन्तो राम रस पीवो कुंडाल भरी।

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कहत कबीर सूणो रे भाई संतो,

धन्य  भाग ज्योरी काया सुधरी,

 सन्तो राम रस पीवो कुंडाल भरी।

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भजन सार 👇🏻





इस भजन में कुंडाल सत्संग को बताया गया है कबीर जी कहते हैं जहां भी सत्संग होती हैं तो वहां बैठ भरी हुई कुंडाल में वह रस भी अवश्य पिएं जिसे पीकर सभी साधु सन्त परमात्मा तक पहुंचे हैं।

मेवा मिसरी का दर्जा इसलिए दिया गया है कबीर कहते हैं यह रस मेवा मिसरी से भी मिठा हैं। 

सुरता नुरता का वास हमारे शरीर में होता है कबीर जी ने कहा सत्संग में बैठकर तन मन दोनो सत्संग में होने चाहिए ताकी हमारी सुरता सत्संग में टिकी रहे सुरता इधर उधर ना भटके तो हमें अवश्य राम रस का पुरा आनन्द मिलेगा ।

पांच तत्व पच्चीस प्रगति से बना यह हमारा शरीर हैं यह राम रस शरीर ही ग्रहण करेगा यदि एक प्याला पी लिया तो और बार बार पीने की चाह जगेगी,

पीवे स्वभागिया जो कि गुरूमुखी मानव को बताया गया है अभागिया उस इंसान को जिसके जीवन गुरू होते हुए भी सत्संग का आनन्द नहीं ले सकता उसे अभागी बताया गया है।और जो सत्संग भी नहीं करता ना गुरू के चरण में रहता है उसे नुगरा कहां गया है।

अंत में कबीर जी ने कहां हैं कि धन्य भाग ज्योरी काया सुधरी यानि सत्संग करना बहुत कठीन है अच्छे भाग्यशाली लोगों को ही यह सत्संग में अपनी काया सुधारने का मौका मिलता है।

                             
















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