वारि जाऊं मन रे ऐड़ा कोई सन्त मिले
सरवर तरवर सन्तजन चौथा बरसे मेह,
परमार्थ रे कारणे वे चारों धारी देह।
वारि जाऊ मन रे ऐड़ा
माने सन्त मिले
ज्योने देखिया नैण ठरे,
वारि जाऊ मन रे ऐड़ा
माने सन्त मिले
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निर्मल नैण वैण ज्योरा
निर्मल मन माहीं धीरब धरे
वारि जाऊ मन रे ऐड़ा
माने सन्त मिले।
ज्योने देखिया नैण ठरे,
वारि जाऊ मन रे ऐड़ा
मने सन्त मिले।
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सील संतोष दया मन राखे,
जीवो पर दया वे करें,
वारि जाऊ मन रे ऐड़ा
माने सन्त मिले।
ज्योने देखिया नैण ठरे,
वारि जाऊ मन रे ऐड़ा,
माने सन्त मिले।
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ज्ञान गुणा रा सतगुरु
बालद भर लावे,
हीरलो रो चुण करें,
वारि जाऊ मन रे ऐड़ा
माने सन्त मिले।
ज्योने देखिया नैण ठरे,
वारि जाऊ मन रे ऐड़ा
माने सन्त मिले।
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दोय करजोड़ माली लिखमो
जी बोले भव सू पार करें,
वारि जाऊ मन रे ऐड़ा,
माने सन्त मिले ।
ज्योने देखिया नैण ठरे,
वारि जाऊ मन रे ऐड़ा,
माने सन्त मिले।
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भावार्थ :
सन्त आंखो से निर्मल तो होते ही हैं साथ ही वैण (वाणी) में भी निर्मलता और धीरब (धेर्यवान) होने चाहिए ।
सिलवान (सरल) संतोष और दया हमेशा घट होनी चाहिए,
ऐसे सन्त ज्ञान रूपी बालद हैं और अपने शिष्य को हीरे की परख करना सिखाते हैं।
अंत में सन्त लिखमीदास जी कहते हैं ऐसे सन्त शरण ही भवसागर पार करवा देती हैं।
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