मत कर काया रो अभिमान काया कुंभ से कांची

मत कर माया रो अभिमान 
मत कर काया रो अभिमान 
काया कुंभ से कांची-२

नर थारी आत्मा ने जाण ले 
जाण ले पहचाण मत कर काया रो अभिमान
काया कुंभ से कांची ।

चल गया माय ने बाप 
चल गया कुटुंब परिवार 
चल गया संगड़ा साथी-२
मत कर माया रो अभिमान 
मत कर काया रो अभिमान 
काया कुंभ से कांची-२


चल गया  राणा  ने उमराव 
ज्योरा पडि़या रिया धन माल
खंभे झूलता हाथी-२
 मत कर माया रो अभिमान 
मत कर काया रो अभिमान 
काया कुंभ से कांची-२ 


निट गयो  दमड़ी रो  तेल 
ज्योरो बिखरियो सब खेल 
बुझ गया दिवा ने बाती-२ 
मत कर माया रो अभिमान 
मत कर काया रो अभिमान 
काया कुंभ से कांची-२ 

सतगुरु मिलिया गोरखनाथ
सन्तों रो अमरापुर में वास 
सुरता सायब में लागी-२ 
मत कर माया रो अभिमान 
मत कर काया रो अभिमान 
काया कुंभ से कांची-२ 

भावार्थ: 

सन्तो ने कहां हैं: मानव जीवन में हमें किसी प्रकार का घमंड नहीं करना चाहिए ! इस आत्मा को जानकर मनुष्य को  पहचान करनी चाहिए कहां हैं कि एकांत में बैठकर जरूर सोचना आत्मा कौन है हम कौन कहां से आए कहां जायेंगे, फिर किसी बात का मन में अभिमान नहीं आयेगा ‌।
और इस काया और माया का अभिमान नहीं करना चाहिए जब दोनों एक दिन हमारा साथ छोड़ने वाली हैं, सन्तों ने तो काया को कच्चे माटी के (कुंभ) घड़े जैसी बताई हैं। 




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