लागे ओ माने राम पियारा रे


दोहा:

मन की  हारे हार है मन की जीते जीत,
इण मन ने समझ कर सांवरिया से प्रीत।

प्रेम न वाड़ी निपजे प्रेम न हाठ बिकाय,
जो प्रेमा हाठा बिके सिर साठे ले जाय।



लागे ओ माने राम पियारा रे।


प्रीत तजी संसार की,

 मन हो गया न्यारा रे! लागे

 ओ माने राम पियारा रे।

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सतगुरु शब्द सुणाविया

 गुरू ज्ञान विचारा रे,

भ्रम तिमर सब कोई भागे

 होवे उजियारा रे ! लागे 

ओ माने राम पियारा रे। 

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प्रीत तजी संसार की,

 मन हो गया न्यारा रे! लागे

ओ माने राम पियारा रे।

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मैं बंदा उस ब्रह्म का 

ज्योरा वार नी पारा रे,

ताई भजे कोई साधवा

 जिने तन मन वारा रे! लागे

ओ माने राम पियारा रे।

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प्रीत तजी संसार की,

 मन हो गया न्यारा रे! लागे

 ओ माने राम पियारा रे।

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चख चखने फल छोड़िया

 माया रस खारा रे,

राम अमि रस पिजिए 

नित वारमवारा रे! लागे

ओ माने राम पियारा रे।

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प्रीत तजी संसार की,

 मन हो गया न्यारा रे! लागे

 ओ माने राम पियारा रे।

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आन देव ने ध्यावसी

 ज्योरे सन मुख सारा रे,

राम निरंजन यूं भणे

 उतरोला पारा रे! लागे 

ओ माने राम पियारा रे।

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प्रीत तजी संसार की,

 मन हो गया न्यारा रे! लागे

 ओ माने राम पियारा रे।

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भावार्थ :




सन्तों ने कहां हैं इंसान को परमात्मा से प्रेम भाव होना जरूरी है यदि परमात्मा से प्रीत हो जाए तो नाम के सामने दुनिया की प्रीत बिल्कुल फीकी पड़ जाती है उस वक्त मानव सांसारिक जीवन के साथ भगवान को हमेशा याद रखता है, और मन भी एकाग्र हो जाता है।

ऐसे श्रेष्ठ जीवन के लिए सर्व प्रथम गुरु का चरण लेना आवश्यक बताया गया है गुरू की शरण में मनुष्य को ज्ञान की प्राप्ति होती है उसी ज्ञान से मानव के जीवन में चल रही भ्रमणा तृष्णा जैसी चीजें नष्ट होकर ह्रदय में गुरू के नाम का प्रकाश हो जाता है जिसका आभास वो स्वयं कर सकता है, 

भ्रमना : (यानि मैं इतना बड़ा आदमी हूं, बड़ें बड़े लोगों से मेरी पहचान हैं मेरे पास दस बंगले हैं इस पहचान और बड़ाई से  परमात्मा का कोई तालूक नहीं, सारी भ्रमनाओ का निवारण के लिए सिर्फ गुरू का ज्ञान सबसे महत्वपूर्ण है।)

दुसरी पंक्ति में सन्तों ने कहा है ब्रह्म शब्द को जोड़ा है कहां हैं इंसान सब सांसारिक भोग विलास को सिर्फ अपना कर्तव्य समझ कर गुरू की मार्ग पर चलता रहता है, धीरे धीरे उसे ब्रह्म की नागरिकता मिल जाती है, जो तन मन गुरू के सामने अर्पण कर देता है, वहीं शुरवीर मानव आराम से वहां तक पहुंच जाता है जो साधारण व्यक्ति में भी भगवान के दृश्य को देखता हैं।

तीसरी पंक्ति में राम निरंजन महाराज ने अपने मन बात बताई की मैंने मानव जीवन में हर फल को चखा हैं (हर तरह से जीवन जिया) उसमें मुझे जो माया का रस सबसे घातक नजर आया ! माया का रस पीने वाले को राम का रस कभी अच्छा नहीं लगता यदि एक बार राम अमिरस रस पी लिया तो उसे माया का रस बिल्कुल कड़वा (खारा) लगेगा, दोनों में अमृत और जहर जितना फर्क बताया गया है।


चौथी पंक्ति में आदि देव बखान किया हैं आदि देव वो हैं जिनका ना ही जन्म होता है ना मरण जिसे हम निराकर, निरंजन, ओम भी कहते हैं जिन से ब्रह्मा विष्णु महेश की उत्पत्ति हुई उनके सुमिरन से मानव जीवन धन्य हो जाता है।








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